नहीं उतरी
एक भी पँखुड़ी
देवदार ने नहीं गाया
सयाले का कोई गीत
नहीं मंडराये आकाश में
लाल-पीली चिड़ियों के समूह
शहर की बगलों में
चुपचाप घुस आया जाड़ा
अनमना-सा
आता सूरज...
चला जाता
पौष की कटार पर
सोया पड़ा शहर
पाले की परतों में
सुलग रही आग
आओ...
बर्फ़ के फाहों की तरह
ऊष्मा लेकर आओ
सामने के टीले से
गाना कोई गीत लंबा
पिघल जाएंगी
पाळे की परतें
शें ई ..शें ई .. गायेंगे
झूमेंगे देवदार
दोनों कानों में
उंगलियाँ देकर
शाबा..श बोलूँगा
सीटी बजाउँगा
तुम्हारी लय के
हर स्पंदन को
समेटूँगा
पहले प्यार की तरह
Sunday, October 4, 2009
Saturday, December 6, 2008
लाहौल-पुराण
मैने राजा गेपंग से मांगी :
पहनने के लिए भेड़ और
खाने के लिए भेड़
स्वाद के लिए
जौ के सत्तू
और मस्ती के लिए
छंग का गिलास
उसने कहा : तथास्तु !
राजा गेपंग से मैने मांगी :
दवा के लिए कुठ की जड़
गाय और
चूल्हे के मुँह के लिए
चंगमा की टहनी
काग़ज़ के लिए
भोजपत्र का पेड़
उसने सहर्ष कहा : तथास्तु !
मैने लाहौल के
शीर्ष लोक-देवता से
और भी बहुत कुछ मांगा
उत्तर मिला तथास्तु !
अंत में मैने
लाहौल के लोगों के लिए मांगा :
भयंकर हिमपात से
थोड़ा सा भय
वर्षा ऋतु में
कटोरी भर बारिश का पानी
और ताज़ा अखबार
एकाएक रुक गया
उल्लास में डोलता भव्य चंवर
आदिम देवता का मुँह बंद था
नियति के द्वार पर
देखने वाला था
उसका चेहरा ।
पहनने के लिए भेड़ और
खाने के लिए भेड़
स्वाद के लिए
जौ के सत्तू
और मस्ती के लिए
छंग का गिलास
उसने कहा : तथास्तु !
राजा गेपंग से मैने मांगी :
दवा के लिए कुठ की जड़
गाय और
चूल्हे के मुँह के लिए
चंगमा की टहनी
काग़ज़ के लिए
भोजपत्र का पेड़
उसने सहर्ष कहा : तथास्तु !
मैने लाहौल के
शीर्ष लोक-देवता से
और भी बहुत कुछ मांगा
उत्तर मिला तथास्तु !
अंत में मैने
लाहौल के लोगों के लिए मांगा :
भयंकर हिमपात से
थोड़ा सा भय
वर्षा ऋतु में
कटोरी भर बारिश का पानी
और ताज़ा अखबार
एकाएक रुक गया
उल्लास में डोलता भव्य चंवर
आदिम देवता का मुँह बंद था
नियति के द्वार पर
देखने वाला था
उसका चेहरा ।
Friday, December 5, 2008
भेड़
बुज़ुर्गों का कहना है
जब भेड़ मूंडनी हो
उससे पूछा नहीं जाता
दो-चार हरी पत्तियाँ
रोटी का एक ग्रास
या चंद दाने दिखाकर
एक सछल, शरारती पुचकार के साथ,
करीब बुला लिया जाता है उसे
और वह निरीह
सहज चली आती है
बस
सुविधाजनक ढंग से
कैंची चलाकर
ऊन उतार लो उसकी
और फिर से
एक अर्से के लिये
ऊबड़-खाबड़ गहन निर्जन में
नंगा कर छोड़ दो
जहाँ रहते हैं
असंख्य भेड़िये और
भेड़िये के बच्चे
उसके ख़ून की ताक में
सिंहासन सजते हैं
भेड़ की ऊन से
राजतिलक भी होता है
भेड़ के खून से
पर निरीह भेड़ ठगी सी
बस ऊन होती है
या ख़ून।
जब भेड़ मूंडनी हो
उससे पूछा नहीं जाता
दो-चार हरी पत्तियाँ
रोटी का एक ग्रास
या चंद दाने दिखाकर
एक सछल, शरारती पुचकार के साथ,
करीब बुला लिया जाता है उसे
और वह निरीह
सहज चली आती है
बस
सुविधाजनक ढंग से
कैंची चलाकर
ऊन उतार लो उसकी
और फिर से
एक अर्से के लिये
ऊबड़-खाबड़ गहन निर्जन में
नंगा कर छोड़ दो
जहाँ रहते हैं
असंख्य भेड़िये और
भेड़िये के बच्चे
उसके ख़ून की ताक में
सिंहासन सजते हैं
भेड़ की ऊन से
राजतिलक भी होता है
भेड़ के खून से
पर निरीह भेड़ ठगी सी
बस ऊन होती है
या ख़ून।
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